महर्षि दयानन्द सरस्वती | DAYANANDA SARASWATI
जन्म- 1824 ई.
जन्म स्थान गुजरात का टंकारा गांव
देहान्त- 1883 ई
शिवरात्रि का पर्व है। गाँव की सीमा पर स्थित शिवालय में आज भक्तों की बहुत भीड़ है। दीपकों के प्रकाश से सारा देवालय जगमगा रहा है। भक्तां की मण्डली भाव विभोर होकर भजन-कीर्तन में निमग्न है। लोगों का विश्वास है कि आज दिन भर निराहार रहकर रात्रि जागरण करने से विशेष पुण्य प्राप्त होता है।
कुछ समय तक भजन-कीर्तन का क्रम चलता रहा परन्तु जैसे-जैसे रात्रि बीतने लगी लोगों का उत्साह ठंडा पड़ने लगा। कुछ उठकर अपने घरों को चले गए, जो रह गए वे भी अपने आपको सँभाल न सके। आधी रात होते-होते वहीं सो गए। ढोल-मंजीरे शान्त हो गए। निस्तब्ध सन्नाटे में एक बालक अभी भी जाग रहा था। उसकी आँखों में नींद कहाँ अपलक दृष्टि से वह अब भी शिव-प्रतिमा को निहार रहा था। तभी उसकी दृष्टि एक चूहे पर पड़ी जो बड़ी सतर्कतापूर्वक इधर-उधर देखते हुए शिवलिंग की ओर बढ़ रहा था। शिवलिंग के पास पहुँचकर पहले तो वह उस पर चढ़ायी गयी भोग की वस्तुओं को खाता रहा, फिर सहसा मूर्ति के ऊपर चढ़कर आनन्दपूर्वक घूमने लगा जैसे हिमालय की चोटी पर पहुँच जाने का गौरव प्राप्त हो गया हो।
पहले तो बालक का मन हुआ कि वह चूहे को डराकर दूर भगा दे परन्तु दूसरे ही क्षण उनके अन्तर्मन को एक झटका सा लगा, श्रद्धा और विश्वास के सारे तार झनझनाकर जैसे एक साथ टूट गए। इस विचार ने बालक के जीवन दर्शन को ही बदल डाला। उसने ईश्वर की खोज का संकल्प लिया। यह बालक था मूलशंकर आगे चलकर यही बालक महर्षि दयानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुआ।